बाल महोत्सव के मंच पर हुआ कथक और लोकनृत्य

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ग व्यापार मेला प्राधिकरण की ओर से बाल महोत्सव की शुरुआत मंगलवार से हुई। इसमें पहले दिन एकल नृत्य प्रतियोगिता हुई। इसमें 200 प्रतिभागियों ने प्रस्तुति दी। इस प्रस्तुति में खासबात यह रही कि इसमें सबसे ज्यादा बालिकाओं ने लोकनृत्य और कथक की प्रस्तुति दी।
महोत्सव में प्रतिभागियों की संख्या अधिक होने के कारण इन्हें 2 से 4 मिनट का समय प्रस्तुति के लिए दिया गया। इसमें प्रेक्षा माहेश्वरी ने मां सरस्वती की प्रस्तुति दी। वही वंशिका गोड़वानी ने गली गली में फिरता है... गीत पर डांस की प्रस्तुति दी। प्रतियोगिता में अनुष्का सोनी ने हवा हवाई..., कनक शर्मा ने दीवानी मस्तानी..., संजना लोधी ने ढोल बाजे..., सोनाली शर्मा ने घूमर और नैतिक ने ममता के आंचल में चला... गीत पर डांस की प्रस्तुति दी।" alt="" aria-hidden="true" />
इशारों-इशारों में दिल लेने वाले, बात ये हुनर तुमने सीखा कहां से
वहीं मंगलवार की शाम सांस्कृतिक कार्यक्रमों की श्रृंखला में शहर के कलाकारों ने गीतों की प्रस्तुति दी। इसमें निशिकांत मोघे और उनकी टीम नए-पुराने तराने सुनाकर श्रोताओं का तन-मन झंकृत कर दिया। कार्यक्रम की खास बात यह रही इसमें युवाओं ने 1956 में प्रदर्शित हुईं फिल्मों के गीतों को अपनी आवाज दी।" alt="" aria-hidden="true" /> कार्यक्रम का शुभारंभ प्राधिकरण के पदाधिकारियों ने किया। इसके बाद निशिकांत मोघे और प्रिया ने मोह-मोह के धागे... सुनाया। इनके बाद धर्मेद्र और सोनी खान ने इशारों-इशारों में दिल लेने वाले...,दीपांकर मिश्रा ने तेरी दीवानी..., ईशान ने सजदा तेरा सजदा..., मोहन करोसिया ने आजा तुझको पुकारे मेरा प्यार...गीत सुनाकार श्रोताओं की तालियां अपने नाम कीं। इसी कड़ी में डॉ. ईश्वरचन्द्र करकरे, शिवम पाल, निरंजन सागर और राजेंद्र महाडिक ने भी गीत सुनाए।


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प्रतापगढ़ :
आज मनुष्य भौतिकतावाद की आंधी में बहकर अधिकतम धन-सम्पत्ति अर्जन कर, भोग-विलास के साधनों से क्षणिक सुखों की म्रगतृष्णा में भटक रहा है,इसलिए वह ईश्वर प्रदत्त शाश्वत शांति और आंनंद प्राप्ति से दूर ही होता जा रहा है। अज्ञानता वश इस सत्य से अनभिज्ञ है,की सुख-दुख की अनुभूति करने वाला केवल एक ही मन है। सनातन वैदिक धर्म की मान्यताओं में इसलिए सुख विशेष की अवस्था को स्वर्ग तथा दुख विशेष की अवस्था को ही नर्क कहा गया है। शांति के बिना आनंद की प्राप्ति सम्भव नही यही जगत का अटल सत्य है। सुख-दुख केवल एक मन की अवस्था का नाम है। ऐसा होना कभी सम्भव नही की संवेदनहीन निष्ठुर,कठोर ह्रदय से हम दुखों की अनुभूतियों को नजर -अंदाज कर दें और उसी ह्रदय से सुख,आनंद अनुभव कर लें इन अनुभूतियों के लिए ह्रदय का संवेदनशील होना आवश्यक है। वेद का शाब्दिक अर्थ ही ज्ञान है। वह सनातन, सार्वभौमिक होने के साथ विज्ञान न्याय,धर्म सम्मत भी है। जगत नियंता ईश्वर ही श्रष्टि का आटो माइन सिस्टम है। उसके विधान को विज्ञान की कोई भी तकनीक से बदलना सम्भव नही है। इसका सीधा सा एक अर्थ है,की दूसरे जीवों की पीड़ाओं, कष्टों, दुखों, परेशानियों को महसूस करने के प्रति,मनुष्य जितना उदासीन ,संवेदनहीन होगा,वह सुख-आंनद की अनुभूति से भी उतना ही वंचित रहेगा।दूसरे का अहित चाहने का विचार भी हमारे ही मन में उपजता है ऐसा होते ही हमारी हानि की शुरुआत हो जाती है। क्रोध करते ही हमारा बी.पी बढ़ने लगता है।निराशा,कुंठा अवसाद के विचार मन में आते ही डिप्रेशन,एन्जायटी,लो-बी.पी की समस्या घर करने लगती है।आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के नवीन शोधों के निष्कर्ष भी अब यही जता रहे है नकारात्मक विचारों का हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भविष्य की दुनियां में रोग- निदान में मनोचिकित्सा की बहुत बडी भूमिका उभर कर सामने आयेगी।