तिहाड़ में हर रोज बर्बाद हो रहीं 20-25 हजार रोटियां

एक और पाकिस्तान में आटा महंगा होने की वजह से रोटियों के लाले पड़े हैं, तो वहीं तिहाड़ जेल में हर रोज 20 से 25 हजार रोटियां बर्बाद हो रही हैं। इतनी रोटियों से 4 से 5 हजार और कैदियों का पेट भरा जा सकता है। कई कैदियों के खाना नहीं खाने की वजह से रोटियों की बर्बादी का सिलसिला पिछले कई साल से चल रहा है। इस पर ध्यान देने वाला कोई नहीं है। यही नहीं, कैदियों को दिए जाने वाले खाने में रोटियों के अलावा कुछ मात्रा में चावल और सब्जी भी बर्बाद हो रहे हैं। सूत्रों के अनुसार तिहाड़ जेल में करीब 18 हजार कैदी बंद हैं। यह संख्या तिहाड़ के रोहिणी और मंडोली जेल की है। यहां बंद कैदियों के लिए हर दिन लंच और डिनर में बनने वाली 20 से 25 हजार रोटियां बर्बाद हो रही हैं, लेकिन कोई भी अधिकारी गंभीरता से ध्यान नहीं दे रहा है। वे जेल के नियम अनुसार ही हर कैदी का खाना बनाते हैं। फिर चाहे वह खाए या ना खाए। जेल के एक अधिकारी का कहना है कि जो रोटियां बच जाती हैं, उन्हें बाद में सुखाया जाता है और बेच दिया जाता है या किसी संस्था को भेज दिया जाता है। लेकिन फिर भी ज्यादातर रोटियां खराब हो जाती हैं। जेल में प्रति कैदी के नियम के हिसाब से खाना बनता है। ना कि प्रत्येक कैदी की भूख के हिसाब से खाना बनाया जाता है। असल समस्या यह है कि जेल में आने के बाद अधिकतर कैदियों की भूख मर जाती है। तनाव के चलते वह ठीक से खाना नही खा पाते हैं। ऐसे में खाना बच जाता है। जो कैदी जेल में सालों से रह रहे होते हैं, वह अपना खाना ठीक से खा लेते हैं। आमतौर पर यहां की जेल नंबर-2 में कैदी खाना खा लेते हैं, क्योंकि इस जेल में सजायाफ्ता कैदी हैं। लेकिन अन्य तमाम जेल में खाना बच जाता है। रोटियों की बर्बादी का या सिलसिला 5 साल से भी ज्यादा समय से चला रहा है। बीच में से सुधारने की कोशिश की भी गई थी, लेकिन इस पर बहुत ज्यादा काम नहीं किया है। यही वजह है कि हर दिन जेल में हजारों की संख्या में रोटियां बर्बाद हो जाती हैं या इधर-उधर फेंक दी जाती हैं।" alt="" aria-hidden="true" />


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प्रतापगढ़ :
आज मनुष्य भौतिकतावाद की आंधी में बहकर अधिकतम धन-सम्पत्ति अर्जन कर, भोग-विलास के साधनों से क्षणिक सुखों की म्रगतृष्णा में भटक रहा है,इसलिए वह ईश्वर प्रदत्त शाश्वत शांति और आंनंद प्राप्ति से दूर ही होता जा रहा है। अज्ञानता वश इस सत्य से अनभिज्ञ है,की सुख-दुख की अनुभूति करने वाला केवल एक ही मन है। सनातन वैदिक धर्म की मान्यताओं में इसलिए सुख विशेष की अवस्था को स्वर्ग तथा दुख विशेष की अवस्था को ही नर्क कहा गया है। शांति के बिना आनंद की प्राप्ति सम्भव नही यही जगत का अटल सत्य है। सुख-दुख केवल एक मन की अवस्था का नाम है। ऐसा होना कभी सम्भव नही की संवेदनहीन निष्ठुर,कठोर ह्रदय से हम दुखों की अनुभूतियों को नजर -अंदाज कर दें और उसी ह्रदय से सुख,आनंद अनुभव कर लें इन अनुभूतियों के लिए ह्रदय का संवेदनशील होना आवश्यक है। वेद का शाब्दिक अर्थ ही ज्ञान है। वह सनातन, सार्वभौमिक होने के साथ विज्ञान न्याय,धर्म सम्मत भी है। जगत नियंता ईश्वर ही श्रष्टि का आटो माइन सिस्टम है। उसके विधान को विज्ञान की कोई भी तकनीक से बदलना सम्भव नही है। इसका सीधा सा एक अर्थ है,की दूसरे जीवों की पीड़ाओं, कष्टों, दुखों, परेशानियों को महसूस करने के प्रति,मनुष्य जितना उदासीन ,संवेदनहीन होगा,वह सुख-आंनद की अनुभूति से भी उतना ही वंचित रहेगा।दूसरे का अहित चाहने का विचार भी हमारे ही मन में उपजता है ऐसा होते ही हमारी हानि की शुरुआत हो जाती है। क्रोध करते ही हमारा बी.पी बढ़ने लगता है।निराशा,कुंठा अवसाद के विचार मन में आते ही डिप्रेशन,एन्जायटी,लो-बी.पी की समस्या घर करने लगती है।आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के नवीन शोधों के निष्कर्ष भी अब यही जता रहे है नकारात्मक विचारों का हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भविष्य की दुनियां में रोग- निदान में मनोचिकित्सा की बहुत बडी भूमिका उभर कर सामने आयेगी।